This is such a true homage! Mubi has the film made on Shukla recently, a very contemplative docu where he talks mostly to Manav Kaul but seems like a soliloquy. It is called Char phool hai aur duniya hai.
Such a deceptively simple style. Even I, with my rusty Hindi learned forty years ago, could read and understand most of his poems. Then, one has to let the meaning sink in. I can understand why you like his work so much: It reminds me of your own writing, which I find deceptively simple in a similar way, its meaning accruing slowly but surely until what felt like skimming the surface feels like the deepest ocean of existence.
क्योंकि यहाँ अचल की हाल ही में MUBI पर आई फ़िल्म का ज़िक्र आया है, तो उसके बारे में दो शब्द...
अचल मिश्रा मेरे प्रिय समकालीन भारतीय फ़िल्मकारों में से एक है, इसे कहने में मुझे कभी संकोच नहीं रहा। उसकी 'गामक घर' ने जिस किस्म की इमेज़री और नॉस्टेल्जिया को सिनेमा के पर्दे पर रचा उसके मोह में, उसकी गिरफ़्त में कोई भी प्रवासी इंसान बहुत आसानी से आ सकता है। उस फ़िल्म में सादा का, रोज़मर्रा का सौन्दर्य था। सिनेमा के पर्दे पर बहुत समय बाद मंथर गति की दोपहरें बाकायदा घटती हुई दिख रही थीं। वो सब कुछ था जिसे शहर की आपाधापी में जूझ रहा आदमी आज मिस करता है। आप चाहें तो एक धागा आपको 'गामक घर' से विनोद कुमार शुक्ल के साहित्य तक भी आता दीख जायेगा। लेकिन अचल की खूबी सिर्फ़ यहाँ नहीं है - अचल की असल खूबी इस बात में है कि वो अपनी दूसरी फ़िल्म 'धुईं' के साथ इसी कथित 'गाँव-घर' के नॉस्टेल्जिया को बहुत ही सहजता के साथ भंग करने से भी पीछे नहीं हटता। शहर में बैठे अपने पीछे छूट गए 'गाँव-जवार' के नॉस्टेल्जिया में तड़पते नौजवान के भावुक नज़रिये के सामने पीछे छूट गए लोगों की, अप्रासंगिक बना दिये गए नौजवान की यथार्थ पीड़ा को रखना। एक तरह से कह सकते हैं कि यहाँ वो अपनी दूसरी फ़िल्म में पहली का क्रिटीक खुद रचता है। कुछ-कुछ दिबाकर बनर्जी की तरह, जिनकी दूसरी फ़िल्म 'ओये लक्की लक्की ओये' परिवार नामक संस्था, रिश्ते, दोस्ती जैसी उन सारी चीज़ों पर एक तीख़ी नज़र डालती थी जिन्हें उनकी पहली फ़िल्म 'खोसला का घोंसला' सेलेब्रेट करती थी। इसीलिए इसे समझना मुश्किल नहीं कि अचल की दूसरी फ़िल्म 'धुईं', पहली फ़िल्म 'गामक घर' जैसी सेलेब्रेट क्यों नहीं हो पाई। 'धुईं' का नॉस्टेल्जिया क्रिटिकल है, असहज करता है, मुश्किल सवाल पूछता है।
इसी अचल की नई फ़िल्म 'चार फूल हैं और दुनिया है' मैंने धर्मशाला फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक सुबह-सुबह की स्क्रीनिंग में देखी। जैसा फ़िल्म समारोहों में अक्सर होता है, पैरेलल स्क्रीनिंग्स के बीच आपको चुनना होता है कि आप क्या देखना चाहते हैं, और तीन शॉर्ट फ़िल्मों के उस पैकेज में ख़ास अचल की फ़िल्म को देखने के लिए उस सुबह जो भीड़ इकट्ठा हुई थी, उससे अन्दाज़ा लग जाता है कि इंडिपेंडेंट सिनेमा और फ़ेस्टिवल सर्किट में अचल का क्या और कैसा जलवा है। वो भीड़ विनोद कुमार शुक्ल के लिए कम, अचल के लिए ज़्यादा थी। अपने छोटे से दायरे में हमारे लिए वो स्टार फ़िल्ममेकर है और ऐसा माननेवाला मैं अकेला नहीं बहुत सारे हैं, ये उस सुबह मुझे अहसास हुआ।
'चार फूल हैं और दुनिया है' कई मायनों में निष्कपट संभावनाओं की और अन्तत: उन तक नहीं पहुँच पाने के अफ़सोस और उस अफ़सोस में जीवन की संतुष्टि तलाश लेने की फ़िल्म है।
उसे देखते हुए दो विपरीत विचार मेरे मन में आते रहे।
पहला तो शुद्ध प्रेम से उपजा विचार था। फ़िल्म देखते हुए इतना लाड़ आया कि जिसमें मन में एक चाहत जागी कि हमारे दूसरे प्यारे हिन्दी लेखकों पर भी ऐसी ही सरल सी फ़िल्म कोई अचल कहीं से आकर बना दे तो कितना अच्छा हो। फ़िल्म, जिसे देखकर ऐसा लगे कि अपने प्रिय लेखक के साथ मैंने भी एक दोपहर बिताई। क्या यह पुण्य का काम नहीं। जिसे देखकर ऐसा लगे कि जो हिन्दी की दुनिया अब तक मेरी निजी और आत्मीय थी, उसमें मैंने अपने गैर-हिन्दी दोस्तों को आने का एक स्नेह निमंत्रण दिया है। अचल का धन्यवाद कि उसने इस प्रोजेक्ट को फ़िल्म लायक माना और उसे यहाँ तक पहुँचाया।
दूसरा विचार जो थोड़ा रुककर आया, कुछ क्रिटिकल था - कि जिस दौर में हमारा भारतीय दस्तावेज़ी सिनेमा एक गज़ब की ऊँचाई पर पहुँच चुका है और जिस पैटर्न पर शॉनक सेन, विनय शुक्ला या रिंटू थॉमस, सुश्मित घोष जैसे फ़िल्मकार सालोंसाल एक किरदार या किरदारों के साथ बिताते हैं। उसके बाद उस दौरान शूट हुए हज़ारों घंटे के लाइव रफ़ फुटेज में से निकालकर अपनी दस्तावेज़ी फ़िल्म की कथा बुनते हैं। ऐसी गहराई लिए बन रही दस्तावेज़ी फ़िल्मों के बीच, क्या यह दो दिन की शूटिंग का प्रयोग कुछ कमतर नहीं लगता? फ़िल्म देखते हुए अक्सर मुझे महसूस होता रहा कि विनोद जी कैमरे के सामने अभी सहज नहीं हुए हैं, उनकी हिचक जो आमतौर पर दूसरी दस्तावेज़ी फ़िल्मों में लम्बी शूटिंग और साथ रहने के बाद टूटती है वो अभी टूटी नहीं है। और यह इसी मायने में उन दस्तावेज़ी फ़िल्मों (उदा. 'व्हाइल वी वॉच्ड' या 'अगेंस्ट दि टाइड') से अलग है जिनमें कैमरा इतने लम्बे वक्त तक किरदार के साथ में रहता है कि अन्तत: किरदार उसे नोटिस करना बन्द कर देता है।
पर यहाँ वो कोशिश भी नहीं है और इसे अचल की बड़ी बात माना जाना चाहिए कि उसने इस तथ्य को कहीं भी छिपाया नहीं कि यह फ़िल्म कुल दो दिनों की मुलाकात का नतीजा है। इस मायने में इसे एक स्लाइस-ऑफ़ लाइफ़ शॉर्ट स्टोरी की तरह पढ़ सकते हैं। शायद जानबूझकर ही अचल ने इसकी लम्बाई 60 मिनट से कम रखी है।
दूसरा बिन्दु - मुझे फ़िल्म देखते हुए यह भी लगता रहा कि अचल के पास दो फ़िल्में थीं।
एक - जिसमें एक युवा लेखक अपने प्रिय और आदर्श बुजुर्ग लेखक से मिलने, उनके साथ कुछ दिन बिताने के लिए जा रहा है। उस युवा के नज़रिये से ही हम सम्मानित लेखक को देखते, उसके ज़रिये फ़िल्म में प्रवेश करते। मुझे यह ढांचा सामने रखते हुए ब्रिलियंट डॉक्यूमेंट्री 'सर्चिंग फ़ॉर शुगरमैन' की याद आ रही है। यह फ़िल्म शायद थोड़ी ज़्यादा नाटकीय होती और इस ढांचे में कथातत्व कुछ ज़्यादा होता। इस फ़िल्म में कहानी के दो प्रॉटेगनिस्ट होते और हम एक नहीं, दो किरदारों के ज़रिये दिनचर्या को घटता हुआ देखते। एक गिव एंड टेक होता और फ़िल्म
दूसरी - जिसमें एक बुजुर्ग हिन्दी लेखक पर फ़ोकस है, उसकी ज़िन्दगी उसके आस-पास को करीब से जानने की कोशिश है। एक ही प्रॉटेगनिस्ट है, जिसके इर्द-गिर्द पूरी फ़िल्म का तानाबाना बुना गया है। इस स्टाइल ऑफ़ फ़िल्ममेकिंग में कथातत्व थोड़ा झीना हो जाता है, लेकिन शायद फ़िल्म को व्याख्याओं का ज़्यादा खुला आकाश मिलता है।
अचल ने इनमें से दूसरी फ़िल्म बनाना चुना, जो वर्तमान प्लॉट हैवी डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के दौर में एक साहसिक चयन है। लेकिन दिक़्कत यह रह जाती है कि फ़िल्म की फ़ुटेज में से अब मानव कौल को, उनके नज़रिये को अदृश्य कर पाना संभव नहीं। फ़िल्मकार अचल खुद फ़िल्म में से अदृश्य है, लेकिन मानव की उपस्थिति ना पूरी तरह मुकम्मल है और ना पूरी तरह अदृश्य। अचल ने ऊपर उल्लेखित पहली क़िस्म की फ़िल्म नहीं बनाना चुना और यह उनका स्वतंत्र चयन है, लेकिन यह उलझन फ़िल्म को पूरी तरह दूसरी किस्म की फ़िल्म होने से भी रोक देती है।
पर इस सबसे अलग एक चीज़ है जिसके लिए मैं अचल की जितनी तारीफ़ करूँ वो कम है, और वो है इस फ़िल्म का आरंभ। फ़िल्म के आरंभ में ही विनोद जी के सुपुत्र शाश्वत गोपाल का साक्षात्कार, और उससे भी अधिक इस साक्षात्कार से फ़िल्म को आरंभ करने का फ़ैसला मेरे लिए इस फ़िल्म गज़ब की आलोचकीय गरिमा देते हैं। विनोद जी के साहित्य को समझने की एक कमाल की चाबी यहाँ मौजूद है, यह उन्हें ज़रा दूर से देखना है, जहाँ आत्मीयता और हिचक साथ खड़े हैं। प्रेम है, लेकिन प्रेम का इज़हार नहीं है। प्रेम याने साथ-साथ सब्ज़ी लाने जाना है, प्रेम याने साइकिल की चेन उतरने पर साथ पैदल चलना है, प्रेम याने रात सिरहाने रखी मुड़ी हुई किताब बन्द करते हुए पेज नंबर याद रख लेना है। जैसे "दूर से अपना घर देखना है"।
अरे, ये संभवत: अचल की विनोद जी पर बनाई नई फ़िल्म 'चार फूल हैं और दुनिया है' पर टिप्पणी बन गई है। मुझे अलग से पोस्ट लिखना चाहिए था, लेकिन यहाँ कमेंट में ज़िक्र पढ़ा तो लिखने लगा और लिखता चला गया। थोड़ा out-of-context हो गया, ये मुझे लिखने के बाद समझ आया।
आप हो सके तो फ़िल्म देखने के बाद ये टिप्पणी पढ़ियेगा। फ़िल्म मूबी पर है।
This is such a true homage! Mubi has the film made on Shukla recently, a very contemplative docu where he talks mostly to Manav Kaul but seems like a soliloquy. It is called Char phool hai aur duniya hai.
Such a deceptively simple style. Even I, with my rusty Hindi learned forty years ago, could read and understand most of his poems. Then, one has to let the meaning sink in. I can understand why you like his work so much: It reminds me of your own writing, which I find deceptively simple in a similar way, its meaning accruing slowly but surely until what felt like skimming the surface feels like the deepest ocean of existence.
🙏🏽
I was just listening to him
Last night. ❤️
I recently watched a documentary on Shukla on Mubi. You might enjoy it.
Oh wow thank you for the translation. The beauty of the poem is definitely a counterpoint to the suggestion of insularity.
भाई, Mubi पे “currently not available” बता रहा है। 😞
क्योंकि यहाँ अचल की हाल ही में MUBI पर आई फ़िल्म का ज़िक्र आया है, तो उसके बारे में दो शब्द...
अचल मिश्रा मेरे प्रिय समकालीन भारतीय फ़िल्मकारों में से एक है, इसे कहने में मुझे कभी संकोच नहीं रहा। उसकी 'गामक घर' ने जिस किस्म की इमेज़री और नॉस्टेल्जिया को सिनेमा के पर्दे पर रचा उसके मोह में, उसकी गिरफ़्त में कोई भी प्रवासी इंसान बहुत आसानी से आ सकता है। उस फ़िल्म में सादा का, रोज़मर्रा का सौन्दर्य था। सिनेमा के पर्दे पर बहुत समय बाद मंथर गति की दोपहरें बाकायदा घटती हुई दिख रही थीं। वो सब कुछ था जिसे शहर की आपाधापी में जूझ रहा आदमी आज मिस करता है। आप चाहें तो एक धागा आपको 'गामक घर' से विनोद कुमार शुक्ल के साहित्य तक भी आता दीख जायेगा। लेकिन अचल की खूबी सिर्फ़ यहाँ नहीं है - अचल की असल खूबी इस बात में है कि वो अपनी दूसरी फ़िल्म 'धुईं' के साथ इसी कथित 'गाँव-घर' के नॉस्टेल्जिया को बहुत ही सहजता के साथ भंग करने से भी पीछे नहीं हटता। शहर में बैठे अपने पीछे छूट गए 'गाँव-जवार' के नॉस्टेल्जिया में तड़पते नौजवान के भावुक नज़रिये के सामने पीछे छूट गए लोगों की, अप्रासंगिक बना दिये गए नौजवान की यथार्थ पीड़ा को रखना। एक तरह से कह सकते हैं कि यहाँ वो अपनी दूसरी फ़िल्म में पहली का क्रिटीक खुद रचता है। कुछ-कुछ दिबाकर बनर्जी की तरह, जिनकी दूसरी फ़िल्म 'ओये लक्की लक्की ओये' परिवार नामक संस्था, रिश्ते, दोस्ती जैसी उन सारी चीज़ों पर एक तीख़ी नज़र डालती थी जिन्हें उनकी पहली फ़िल्म 'खोसला का घोंसला' सेलेब्रेट करती थी। इसीलिए इसे समझना मुश्किल नहीं कि अचल की दूसरी फ़िल्म 'धुईं', पहली फ़िल्म 'गामक घर' जैसी सेलेब्रेट क्यों नहीं हो पाई। 'धुईं' का नॉस्टेल्जिया क्रिटिकल है, असहज करता है, मुश्किल सवाल पूछता है।
इसी अचल की नई फ़िल्म 'चार फूल हैं और दुनिया है' मैंने धर्मशाला फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक सुबह-सुबह की स्क्रीनिंग में देखी। जैसा फ़िल्म समारोहों में अक्सर होता है, पैरेलल स्क्रीनिंग्स के बीच आपको चुनना होता है कि आप क्या देखना चाहते हैं, और तीन शॉर्ट फ़िल्मों के उस पैकेज में ख़ास अचल की फ़िल्म को देखने के लिए उस सुबह जो भीड़ इकट्ठा हुई थी, उससे अन्दाज़ा लग जाता है कि इंडिपेंडेंट सिनेमा और फ़ेस्टिवल सर्किट में अचल का क्या और कैसा जलवा है। वो भीड़ विनोद कुमार शुक्ल के लिए कम, अचल के लिए ज़्यादा थी। अपने छोटे से दायरे में हमारे लिए वो स्टार फ़िल्ममेकर है और ऐसा माननेवाला मैं अकेला नहीं बहुत सारे हैं, ये उस सुबह मुझे अहसास हुआ।
'चार फूल हैं और दुनिया है' कई मायनों में निष्कपट संभावनाओं की और अन्तत: उन तक नहीं पहुँच पाने के अफ़सोस और उस अफ़सोस में जीवन की संतुष्टि तलाश लेने की फ़िल्म है।
उसे देखते हुए दो विपरीत विचार मेरे मन में आते रहे।
पहला तो शुद्ध प्रेम से उपजा विचार था। फ़िल्म देखते हुए इतना लाड़ आया कि जिसमें मन में एक चाहत जागी कि हमारे दूसरे प्यारे हिन्दी लेखकों पर भी ऐसी ही सरल सी फ़िल्म कोई अचल कहीं से आकर बना दे तो कितना अच्छा हो। फ़िल्म, जिसे देखकर ऐसा लगे कि अपने प्रिय लेखक के साथ मैंने भी एक दोपहर बिताई। क्या यह पुण्य का काम नहीं। जिसे देखकर ऐसा लगे कि जो हिन्दी की दुनिया अब तक मेरी निजी और आत्मीय थी, उसमें मैंने अपने गैर-हिन्दी दोस्तों को आने का एक स्नेह निमंत्रण दिया है। अचल का धन्यवाद कि उसने इस प्रोजेक्ट को फ़िल्म लायक माना और उसे यहाँ तक पहुँचाया।
दूसरा विचार जो थोड़ा रुककर आया, कुछ क्रिटिकल था - कि जिस दौर में हमारा भारतीय दस्तावेज़ी सिनेमा एक गज़ब की ऊँचाई पर पहुँच चुका है और जिस पैटर्न पर शॉनक सेन, विनय शुक्ला या रिंटू थॉमस, सुश्मित घोष जैसे फ़िल्मकार सालोंसाल एक किरदार या किरदारों के साथ बिताते हैं। उसके बाद उस दौरान शूट हुए हज़ारों घंटे के लाइव रफ़ फुटेज में से निकालकर अपनी दस्तावेज़ी फ़िल्म की कथा बुनते हैं। ऐसी गहराई लिए बन रही दस्तावेज़ी फ़िल्मों के बीच, क्या यह दो दिन की शूटिंग का प्रयोग कुछ कमतर नहीं लगता? फ़िल्म देखते हुए अक्सर मुझे महसूस होता रहा कि विनोद जी कैमरे के सामने अभी सहज नहीं हुए हैं, उनकी हिचक जो आमतौर पर दूसरी दस्तावेज़ी फ़िल्मों में लम्बी शूटिंग और साथ रहने के बाद टूटती है वो अभी टूटी नहीं है। और यह इसी मायने में उन दस्तावेज़ी फ़िल्मों (उदा. 'व्हाइल वी वॉच्ड' या 'अगेंस्ट दि टाइड') से अलग है जिनमें कैमरा इतने लम्बे वक्त तक किरदार के साथ में रहता है कि अन्तत: किरदार उसे नोटिस करना बन्द कर देता है।
पर यहाँ वो कोशिश भी नहीं है और इसे अचल की बड़ी बात माना जाना चाहिए कि उसने इस तथ्य को कहीं भी छिपाया नहीं कि यह फ़िल्म कुल दो दिनों की मुलाकात का नतीजा है। इस मायने में इसे एक स्लाइस-ऑफ़ लाइफ़ शॉर्ट स्टोरी की तरह पढ़ सकते हैं। शायद जानबूझकर ही अचल ने इसकी लम्बाई 60 मिनट से कम रखी है।
दूसरा बिन्दु - मुझे फ़िल्म देखते हुए यह भी लगता रहा कि अचल के पास दो फ़िल्में थीं।
एक - जिसमें एक युवा लेखक अपने प्रिय और आदर्श बुजुर्ग लेखक से मिलने, उनके साथ कुछ दिन बिताने के लिए जा रहा है। उस युवा के नज़रिये से ही हम सम्मानित लेखक को देखते, उसके ज़रिये फ़िल्म में प्रवेश करते। मुझे यह ढांचा सामने रखते हुए ब्रिलियंट डॉक्यूमेंट्री 'सर्चिंग फ़ॉर शुगरमैन' की याद आ रही है। यह फ़िल्म शायद थोड़ी ज़्यादा नाटकीय होती और इस ढांचे में कथातत्व कुछ ज़्यादा होता। इस फ़िल्म में कहानी के दो प्रॉटेगनिस्ट होते और हम एक नहीं, दो किरदारों के ज़रिये दिनचर्या को घटता हुआ देखते। एक गिव एंड टेक होता और फ़िल्म
दूसरी - जिसमें एक बुजुर्ग हिन्दी लेखक पर फ़ोकस है, उसकी ज़िन्दगी उसके आस-पास को करीब से जानने की कोशिश है। एक ही प्रॉटेगनिस्ट है, जिसके इर्द-गिर्द पूरी फ़िल्म का तानाबाना बुना गया है। इस स्टाइल ऑफ़ फ़िल्ममेकिंग में कथातत्व थोड़ा झीना हो जाता है, लेकिन शायद फ़िल्म को व्याख्याओं का ज़्यादा खुला आकाश मिलता है।
अचल ने इनमें से दूसरी फ़िल्म बनाना चुना, जो वर्तमान प्लॉट हैवी डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के दौर में एक साहसिक चयन है। लेकिन दिक़्कत यह रह जाती है कि फ़िल्म की फ़ुटेज में से अब मानव कौल को, उनके नज़रिये को अदृश्य कर पाना संभव नहीं। फ़िल्मकार अचल खुद फ़िल्म में से अदृश्य है, लेकिन मानव की उपस्थिति ना पूरी तरह मुकम्मल है और ना पूरी तरह अदृश्य। अचल ने ऊपर उल्लेखित पहली क़िस्म की फ़िल्म नहीं बनाना चुना और यह उनका स्वतंत्र चयन है, लेकिन यह उलझन फ़िल्म को पूरी तरह दूसरी किस्म की फ़िल्म होने से भी रोक देती है।
पर इस सबसे अलग एक चीज़ है जिसके लिए मैं अचल की जितनी तारीफ़ करूँ वो कम है, और वो है इस फ़िल्म का आरंभ। फ़िल्म के आरंभ में ही विनोद जी के सुपुत्र शाश्वत गोपाल का साक्षात्कार, और उससे भी अधिक इस साक्षात्कार से फ़िल्म को आरंभ करने का फ़ैसला मेरे लिए इस फ़िल्म गज़ब की आलोचकीय गरिमा देते हैं। विनोद जी के साहित्य को समझने की एक कमाल की चाबी यहाँ मौजूद है, यह उन्हें ज़रा दूर से देखना है, जहाँ आत्मीयता और हिचक साथ खड़े हैं। प्रेम है, लेकिन प्रेम का इज़हार नहीं है। प्रेम याने साथ-साथ सब्ज़ी लाने जाना है, प्रेम याने साइकिल की चेन उतरने पर साथ पैदल चलना है, प्रेम याने रात सिरहाने रखी मुड़ी हुई किताब बन्द करते हुए पेज नंबर याद रख लेना है। जैसे "दूर से अपना घर देखना है"।
भाई, आज क्लास के बाद ठीक से फिर पढ़ूँगा यह टिप्पणी। बहुत आभार। 🙏🏽
अरे, ये संभवत: अचल की विनोद जी पर बनाई नई फ़िल्म 'चार फूल हैं और दुनिया है' पर टिप्पणी बन गई है। मुझे अलग से पोस्ट लिखना चाहिए था, लेकिन यहाँ कमेंट में ज़िक्र पढ़ा तो लिखने लगा और लिखता चला गया। थोड़ा out-of-context हो गया, ये मुझे लिखने के बाद समझ आया।
आप हो सके तो फ़िल्म देखने के बाद ये टिप्पणी पढ़ियेगा। फ़िल्म मूबी पर है।